संस्था द्वारा अपने संसाधनों से प्रतिवर्ष कुछ अभिनव कार्य भी किये जाते हैं। इस प्रयोगों के माध्यम से यह प्रयास किया जाता रहा है कि समुदाय को कम लागत में ही टिकाऊ एवं देखरेख में आसान संसाधन उपलब्ध हो। इस प्रकार के कार्य संस्था अपने कार्य के दौरान स्वयं एवं समुदाय के अनुभवों की सीख के आधार पर पहले प्रयोग के तौर पर करती है इसकी सफलता पर इसे बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। जिससे कि समुदाय में सुविधायें बढ़े। संस्था पेयजल की उपलब्धता, आजीविका संसाधनों के विकास के क्षेत्र में अनेक नये तौर तरीकों का इस्तेमाल करते आ रही है।
कलस्टर एप्रोच
संस्था ने अभी तक विभिन्न क्षेत्रों में 300 से अधिक ग्रामों में कार्यक्रमों को संचालित किया है। अत्यधिक फैले हुए क्षेत्र में कार्य करने से संसाधनों के अभाव के चलते संस्था अभी 200 ग्रामों में ही समुदाय के साथ बराबर सम्पर्क स्थापित कर पा रही है। जिस कारण समय-समय पर आने वाली समस्याओं के समाधान में सहयोग कर पाना सम्भव नहीं हो पाता है। संस्था का यह मानना है कि स्थायित्व और विकास प्रक्रिया को निरन्तर आगे बढ़ाने हेतु बराबर सम्पर्क एवम् उत्प्रेरण की आवश्यकता पड़ती है। इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के बाद यह राय बनी कि संस्था को अपने कार्यक्रमों का संचालन नये-नये क्षेत्रों में न करते हुए कलस्टर एप्रोच में ही करना चाहिए।
सब्जी उत्पादन
पर्वतीय क्षेत्र के गाँवों में लोग परम्परागत तौर से ही कृषि कार्य करते आ रहे हैं। सब्जी उत्पादन का कार्य ग्राम के कुछ ही परिवारों द्वारा अपने निजी उपयोग हेतु किया जाता रहा है। यहाँ पर सब्जी उत्पादन की सम्भावना को देखते हुए संस्था ने लोगों को सब्जी उत्पादन करने एवम् इसके विपणन हेतु प्रोत्साहित किया गया है। जिसके परिणामस्वरूप कास्तकार सब्जी उत्पादन के साथ-साथ इसका विपणन कर आय-अर्जित करने लगे हैं।
संस्था परिसर में प्रदर्शन के तौर पर किये गये कार्य
संस्था द्वारा अपने परिसर के पाॅलीहाउस में पौध तैयार कर मैरो कद्दू, शिमला मिर्च, बैगन, तुरई, खीरा आदि के पौधों का विपणन के अलावा परिसर में ही सब्जी उत्पादित कर सब्जी की विक्री निरन्तर की जाती है। जिससे अन्य ग्रामों के लोगों को भी प्रेरणा मिली है।
हिमालयन ग्राम विकास समिति द्वारा किये जा रहे अभिनव प्रयोग
- वर्षाजल से जलापूर्ति के अभिनव प्रयोग
- फैरो लाइन टैंक
- फैरो सीमेंट तकनीक से छत का निर्माण
- कम लागत के पाॅली हाउस
ग्राम-नाग व भामा में वर्षाजल से जलापूर्ति के अभिनव प्रयोग
संस्था द्वारा विकासखण्ड-गंगोलीहाट के ग्राम-नाग में 20 अनुसूचित जाति के परिवारों के लिये एक अभिनव प्रयोग करते हुए चार लाख लीटर क्षमता का वर्षाजल टैंक बनाकर 6500 फीट की ऊंचाई पर बसे 20 परिवारों की पानी की समस्या का कुछ हद तक पूरा करने में सफलता प्राप्त की। इस टैंक से अक्टूवर 2007 में जलापूर्ति प्रारम्भ कर दी गयी है। इस टैक से पानी वितरण करने हेतु अलग से चार हजार लीटर का वितरण टैंक बनाया गया है। इस टैंक को रोज भरकर पानी का वितरण 1200 मीटर पाइप लाइन विछाकर किया गया है। इसी तरह से गंगोलीहाट के ही 7000 फीट ऊँचाई में बसे भामा गांव में पेयजल के आपूर्ति हेतु केवल दो नौले थे जिनमें अक्टूबर के बाद पानी काफी कम हो जाता था लोग वर्ष में छः माह डेढ़ से दो किमी दूर से पानी ढोने को मजबूर थे। वर्षात में नौलों में पानी अधिक होने पर वह बह जाता था। संस्था द्वारा मनरेगा योजना के माध्यम से इन नौलों के पास एक-एक लाख लीटर क्षमता के दो स्टोरेज टैंक बनाकर उनमें नौले का पानी डालकर उसे स्टोरेज की व्यवस्था की गयी।
फैरो लाइन टैंक
संस्था द्वारा पूर्व में जल संग्रहण करने हेतु पाॅली लाइन टैंकों का निर्माण किया जाता था। लेकिन टैंक में बिछाई जाने वाली सीट पत्थर आदि लगने से कट जाने के कारण इसका उचित लाभ नहीं मिल पा रहा था। संस्था द्वारा इस पर गहन विचार-विमर्श के बाद प्रायोगिक तौर पर पाॅली सीट के स्थान पर फैरो सीमेण्ट तकनीक का उपयोग करते हुए टैंक का निर्माण किया गया। जो कि कम लागत पर अधिक टिकाऊ साबित हुआ है।
फैरो सीमेंट तकनीक से छत का निर्माण
पिथौरागढ़ जनपद के विकास खण्ड गंगोलीहाट से 5 किलोमीटर दूर स्थिति जजुट गांव में एक शिक्षित और प्रगतिशील किसान गिरीश चन्द्र जोशी रहते है। जो वहा के ग्रामपंचायत प्रधान भी है। गांव में अभी भी बहुत सारे घरो में पुरानी तकनीक से स्लेट का इस्तेमाल करके छत बनी थी। बंदरों का आतंक बढ़ने से ये छतें लगातार टपकती रहती थी। जिसके कारण ग्राम वासियो को छतों की बार-बार मरम्मत करनी पड़ती थी। इस कारण इस पर खर्च भी बहुत आता था और स्लेटें आसानी से मिलती भी नहीं थी। छत के टपकने के कारण भी छत की लकड़ी को बार-बार बदलने की समस्या अलग बनी रहती थी। इन सबसे से निजात पाने के लिये गांव में स्लेट के स्थान पर लेंटर डाले जा रहे थे। लेंटर पड़ने से लोगों को गर्मी में अत्यधिक गर्मी व जाड़ों में अत्यधिक ठंड झेलनी पड़ रही थी। जिसकी वजह से लोगों के स्वास्थ्य पर भी ख़राब असर पड़ रहा था। इसमें भूकम्प के समय खतरा भी बना रहता था।
संस्था के सदस्यों का गांव में कृर्षि, बागवानी व पशु पालन के कार्यों को आजीविका से जोड़ने हेतु आना-जाना लगा रहता था। संस्था द्वारा सब्जी उत्पादन पर जोर देते हुए समुदाय के साथ निरन्तर विचार-विमर्श चल रहा था उसी दौरान ग्राम वासियो के साथ पहाड़ो में पुरानी स्लेट की छतों के स्थान पर लेंटर स्लैव डाले जाने पर चर्चाओं में यह बात उभरी कि स्लेटों की कीमत अत्यधिक बढ़ जाने के बावजूद वह आसानी से प्राप्त नहीं हो पा रही हैं।
संस्था द्वारा इस समस्या के समाधान के लिये गांव के प्रभावित लोगों को लेंटर के स्थान पर फैरोसीमेंट की तकनीक का इस्तेमाल कर ढालूदार छत डालने का विकल्प दिया गया। परन्तु लोगों में तमाम शकायें थीं। बहुत समझाने पर अगर कोई व्यक्ति तैयार भी होता तो वह दो-चार दिनों में इस प्रयोग से मुकर जाता था। ऐसे में गिरीश चन्द्र जोशी आगे आये और उन्होंने बहुत सारी शंकाओ के साथ अपने मकान में प्रयोग हेतु सहमति दी। तत्पश्चात 24 अप्रैल 2014 को हिमालयन ग्राम विकास समिति की टीम के द्वारा ग्रामीण सहभागिता के माध्यम से छत के पत्थर की स्लैटों को हटाया और जाली बिछाकर सीमेंट द्वारा दोनों साइड में ढलान देकर फैरोतकनीकि से छत निर्माण कार्य किया गया। जिसमें छत में पहले से डाली गयी लकड़ी व मिट्टी को वैसे ही रहने दिया गया। यह सब कार्य बिना कोई तोड़-फोड़ के मात्र दो ही दिनों में सम्पन्न हो गया। अब भारी वर्षा का इंतज़ार था। साथ ही सभी ग्रामीणों में भी जिज्ञासा भी थी कि इतनी पतली छत टिक पायेगी या नहीं, कहीं जोशी जी ने अपने ऊपर कोई बड़ी आफत तो मोल नहीं ली। तीन जून से सितम्बर के बीच वर्षात में छत टपकना तो बंद हो ही गया साथ ही छत के अन्दर लकड़ी और मिट्टी होने से गर्मी और जाड़े के अहसास का भी कोई प्रभाव नही पड़ा। गिरीश चन्द्र जोशी कहते हैं कि इस वर्षात मैं कई वर्षो के बाद चैन की नींद सोया हूँ। इस तकनीक में लेंटर के मुकाबले आधी लागत आ रही है। यह तकनीक सस्ती, टिकाऊ, आसान और पर्यावरण अनुकूल भी हैं।
कम लागत के पाॅली हाउस
पाॅलीहाउस तकनीक से बेमौसमी सब्जी उत्पादन का कार्य तेजी से बड़ा है। परन्तु आयरन एंगिल के पालीहाउस की कीमत काफी अधिक होने के कारण लोग पाॅलीहाउस नहीं बना पा रहे थे। आयरन एंगिल वाले पाॅलीहाउस के विकल्प में बांस के पाॅलीहाउसों का निर्माण किया गया। जो लागत के अनुसार टिकाऊ साबित नहीं हो रहे थे। तीन ही साल में बांस के खम्बे सड़ जा रहे थे। तीसरे साल बांस तो बदला जा सकता है। परन्तु इससे पाॅलीसीट को नुकसान पहुँच रहा था। जबकि यही पाॅलीसीट 6 वर्षों तक उपयोग में लायी जा सकती है। इस समस्या के समाधान हेतु संस्था द्वारा पाॅलीहाउस के खम्भों हेतु बांस की जगह जी. आई. पाइप का इस्तेमाल करते हुए पाॅलीहउस को अधिक टिकाऊ बनाया गया। इस तकनीक में पाॅलीहाउस में पाइप और बांस दोनों का उपयोग होता है। जमीन के ऊपर के बांस और पाॅलीसीट को 6 वर्षों बाद एक ही समय में बदलने की आवष्यकता होती है। इस प्रकार के पाॅलीहाउस कास्तकारों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
पिछले कई वर्षो से सब्जी उत्पादन के कार्य को निरन्तर प्रोत्साहित किया जा रहा है। इन उत्पादकों द्वारा लौकी तोरई कद्दू, खीरा, शिमला मिर्च, बैगन, गोभी आदि सब्जियों के पौध तैयार कर बिक्री की गयी। जिससे एक तरफ उत्पादकों की आय बढ़ी वही अन्य ग्राम के लोग भी प्रेरित होकर सब्जी उत्पादन से जुड़ रहे है।