पहाड़ों में जनजीवन जिस प्रकार से जंगल पर आश्रित है उस परिस्थिति में जंगलों को बचाना न केवल हमारा नैतिक दायित्व है बल्कि हमारी रोजमर्रा की जरूरत भी है। शायद इसी तथ्य को समझते हुए प्राचीन काल से ही हमारे पूर्वजों ने जल, जंगल व जमीन के संरक्षण के प्रति केवल उपभोक्तावादी रवैया ही नहीं अपनाया है बल्कि इसे सहअस्तित्व की भावना के तहत संवारा भी हैं जिसके अनेक रूप देवी को समर्पित जंगल, जैसे प्रयासों में देखे जा सकते हैं। समय के साथ (विशेषतया आजादी के बाद के काल में) हमारे सामाजिक मन से शायद इस भावना का कहीं न कहीं ह्यस हुआ है जिसका परिणाम हमें आज पानी के लिये तड़पती जमीन व प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखने को मिल रहा हैं। पहले जहां पहाड़ों में सिंचाई सुविधायें उपलब्ध थी वहां आज पीने के पानी के लिये हाय-हाय मची है और जहां पीने के पानी की उपलब्धता न हो वहां फसल, स्वास्थ्य की देखरेख, श्रम की बचत, वनीकरण जैसे मुद्दों की बात करना ही बेमानी हैं।
इसलिये अगर इस परिस्थिति को बदलना है तो चौड़ी पत्ती के पेड़ों का रोपण व वर्षा जल का संरक्षण ही कारगर उपाय है। इससे भू-कटाव व पानी बहाव की समस्याओं से भी सफलतापूर्वक निपटा जा सकता है। पहाड़ के परिपेक्ष्य में इसी बात को हमारे बुजु़र्ग इसे भगीरथ व शिवजी की जटा की कहानी के साथ जोड़ते हुए बताते हैं कि शिव की जटायें कुछ और नहीं बल्कि हमारी वनस्पतियां ही हैं। इनके संवर्धन पानी के स्रोतों को जिंदा रख सकते हैं । अपनी इसी समझ व लक्ष्य को लेकर हम 1990 से इस दिशा में कार्यरत हैं । अपने कार्य के दौरान हमें बार-बार यह महसूस होता कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिये व्यापक रूप से कार्यक्रम संचालित करने की आवश्यकता है।
प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन से जुड़े हमारे कार्य
- भू-जल को बढ़ाने के लिए झीलों का निर्माण
- वाटर एटलस
- मृदा एवं जल संरक्षण
- वनीकरण एवं चारागाह विकास
- सिंचाई संसाधनों का विकास
- बायोगैस एवं वर्मी कम्पोस्ट पिटों का निर्माण
भू-जल को बढ़ाने के लिए झीलों का निर्माण
जल संरक्षण हेतु संस्था के प्रस्ताव के आधार व तकनीकी सहयोग से जिला प्रशासन द्वारा मनरेगा व खनिज न्यास निधि से विकासखण्ड गंगोलीहाट के ग्राम उप्राड़ा में 14 लाख लीटर व ग्राम झलतोला में एक करोड़ लीटर की मिनी झील निर्मित की गयी है। झलतोला झील से गंगोलीहाट व बेरीनाग के 22 ग्रामों के अंतर्गत आने वाले 125 जलस्रोत व उप्राड़ा झील से 4 ग्रामों के 25 जलस्रोत रिचार्ज हो रहे हैं। ग्राम बसई के सीजनल स्रोत में अब वर्ष भर पानी रह रहा है। ग्राम झलतोला के झील के सबसे पास वाले स्रोत में अब नवम्वर से बढ़कर मार्च माह तक पानी मिल रहा है।
वाटर एटलस
विकासखण्ड गंगोलीहाट के जल संकटग्रस्त 30 ग्राम पंचायतों के 74 राजस्व गावों में जनवरी से जून 2019 के बीच संस्था द्वारा पेयजल स्रोतों का चिन्हीकरण किया गया। इन जलस्रोतों का ग्राम पंचायतवार नक्षा तैयार किया गया और मई-जून 2019 में इन स्रोतों का मापन करने के साथ ही इनकी जी. पी.एस. लोकेसन भी ली गयी। सभी ग्राम पंचायतों में 517 जलस्रोत चिन्हित किये गये जिसमेें 135 नौले, 54 धारे, 306 स्प्रिंग व 22 सिमार है। इनमें से 43 स्रोत सीजनल है। 161 स्रोत सूखने के कगार पर हंै। इन ग्राम पंचायतों का सर्वेक्षण व जल संसाधनों के मैपिंग के बाद जल संकट से अत्यधिक समस्याग्रस्त 19 ग्राम पंचायतों में जल सरंक्षण कार्यो हेतु कार्ययोजनायें बनाकर प्रस्तावों को मनरेगा योजना में षामिल करवाकर उन्हें ग्राम पंचायतों के माध्यम से कार्यान्वित करवाया गया है।
मृदा एवं जल संरक्षण
संस्था द्वारा जल सरक्षण एवं जलसंग्रहण के उद्देश्य से 34 ग्रामों के जलस्रोतों के जलागम क्षेत्रों में 152 चाल-खालों का निर्माण किया गया। इन चाल-खालों के निर्माण से जहां वनों को नमी मिली हैं वही जलस्रोतों का स्राव भी बढ़ा है। संस्था द्वारा ग्रामों की सार्वजनिक भूमि में 95407 मीटर कन्टूर ट्रेंच भी निर्मित किये गये।
पूर्वो के वर्षो में बनाये गये प्लाटों में लगायी घास व पौधों की निराई-गुड़ाई करने के साथ ही समूहों की महिलाएं गोबर खाद भी डालती हैं। इन प्लाटों में खरपतवार को एकत्रित करने व जल संरक्षण के लिये छोटे-छोटे चाल-खाल भी निर्मित किये गये है। इन चाल-खालों के निर्मित होने से जल संग्रहण के साथ ही चारा प्लाट हेतु जैविक खाद भी प्राप्त हो रही है।
वनीकरण एवं चारागाह विकास
चारे की समस्या को कम करने व चौड़ी पत्ती के पौधों के संरक्षण एवं विकास हेतु संस्था द्वारा ग्रामों की खाली पड़ी सार्वजनिक भूमि में चारा प्लाटों का निर्माण किया गया। विकासखण्ड गंगोलीहाट, बेरीनाग व मुनस्यारी के 30 ग्रामों में 181 हेक्टेयर भूमि में चारा प्लाट निर्मित किए गये है। इन प्लाटों में 103000 चौड़ी पत्ती के पौधों के साथ ही औंस व नेपियर घास का भी रोपण किया है। इन चारा प्लाटों के निर्मित होने से महिलाओं को दूर जंगलों से घास लाने में लगने वाले समय और श्रम में कमी आयी है।
इन नर्सरी निर्माण से जहां एक तरफ लोगों को आर्थिक लाभ होगा, वहीं दूसरी तरफ उन्नत चारे की पैदावार भी बढ़ेगी। लोगों ने निजी खेतों के मेढ़ों में भी नेपियर घास का रोपण किया है, औंस और नेपियर के उत्पादन से पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध होने के साथ ही महिलाओं के श्रम की भी बचत हुई।
औंस घास: यह घास जाड़ों के मौसम में भी हरी रहती है। हरे चारे की कमी के समय में यह चारे की पूर्ति करने में काफी सक्षम है। इसे चारा प्लॉटों में विकसित किये जाने की आवश्यकता महसूस की गयी है। इस घास की उपलब्धता बढ़ाने के उद्देश्य से चारा प्लाट विकसित करने हेतु नि
व्यक्तिगत भूमि में फसली चारा उत्पादन
संस्था की ओर से हरे चारे की उपलब्धता को बढ़ाने के उद्देश्य से व्यक्तिगत भूमि में भी चारे का उत्पादन बढ़ाने के लिये पिछले सात वर्षों से काफी जोर दिया जाता है। बहुत से परिवारों ने अपनी व्यक्तिगत भूमि में मक्का, ज्वार, बाजरा, जई आदि फसली चारे को लगाया गया। जिससे लोगों को अपने पशुओं हेतु हरा चारा उपलब्ध हो रहा है। व्यक्तिगत भूमि में फसली चारा लगाने से लोगों को घर के आस-पास हरा चरा उपलब्ध होेने से जंगलों में हरे चारे का दबाव कम हुआ है।
सिंचाई संसाधनों का विकास
संस्था द्वारा सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाने के उद्देश्य से सिंचाई गूलों, फेरोलाईन टैंक, नहरों व सिंचाई हाॅॅज के साथ ही वर्षा जल से सिंचाई सुविधाऐं बढ़ाने के प्रयास वर्ष 2002 से किये जा रहे है। फेरोलाईन टैंक उन सब्जी उत्पादकों एवं मसाला उत्पादकों के यहां निर्मित किये गये जिनके पास पानी की गम्भीर समस्या थी। कास्तकारों द्वारा इसमें एकत्रित पानी का उपयोग घर की स्वच्छता एवं सब्जी उत्पादन हेतु किया जा रहा है। इस टैंक में लोगों को 100 लीटर प्रतिदिन की दर से 100 दिनों के लिए जल की व्यवस्था हो रही है।
फैरो लाइन टैंक : संस्था द्वारा पूर्व में जल संग्रहण करने हेतु पाॅली लाइन टैंकों का निर्माण किया जाता था। लेकिन टैंक में बिछाई जाने वाली सीट पत्थर आदि लगने से कट जाने के कारण इसका उचित लाभ नहीं मिल पा रहा था। संस्था द्वारा इस पर गहन विचार-विमर्श के बाद प्रायोगिक तौर पर पाॅली सीट के स्थान पर फैरो सीमेण्ट तकनीक का उपयोग करते हुए टैंक का निर्माण किया गया। जो कि कम लागत पर अधिक टिकाऊ साबित हुआ है।
2008 से 2025 के बीच 115 फेरोलाईन टैंकों का निर्माण किया गया।
बायोगैस एवं वर्मी कम्पोस्ट पिटों का निर्माण
बायो गैस का संचालन एवं उपयोग
ईधन की समस्या का समाधन करने व पर्यावरण प्रदूषण को कम करने तथा लोगों के स्वास्थ्य में सुधार लाने एवं महिलाओं के कार्यबोझ को कम करने के उद्देश्य से संस्था द्वारा बनकोट क्षेत्र में दो वर्ष पूर्व बायोगैस निर्माण की पहल करते हुए 5 परिवारों के घरों में बायोगैस निर्माण किया गया। दो वर्षो के उपयोग का अध्ययन करने से यह बात सामने आयी हैं कि 15 नवम्वर से 15 फरवरी के बीच तीन महीने की अवधि को छोड़कर अन्य 9 महिनों में भोजन बनाने हेतु पूर्णतः बायोगैस का उपयोग किया जा रहा है। 5 में से 4 बायोगैस पूर्णत सफल है। एक बायोगैस में निर्माण में कुछ कमी होने के कारण उसका आंशिक लाभ ही मिल पा रहा है। बायोगैस बनने से जहां घर में धुआं कम हुआ हैं जिससे घर की स्वच्छता और घर के लोगों के स्वास्थ्य में भी सुधार आया है। बायोगैस निर्माण से 50 प्रतिशत तक ईधन की लकड़ी की बचत होने से महिलाओं के कार्यबोझ में कमी आने के साथ ही जंगलों का भी संरक्षण हुआ है।
वर्मी कम्पोस्ट पिटों का निर्माण
जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वर्मी कम्पोस्ट पिटों का निर्माण कराया जाता है। कास्तकारों को इनके उपयोग व लाभों की निरन्तर जानकारी दी जा रही है। ताकि भविष्य में सब्जी उत्पादन एवं खेती में जैविक कम्पोस्ट का उपयोग बढ़ने के साथ ही पैदावार भी अच्छी हो सकें। जैविक खाद को बढ़ावा देने के लिये विशेष प्रयास किये गये। लोगों के साथ रासायनिक खाद के दुष्परिणामों और उससे होने वाले आर्थिक नुकसान पर चर्चा कर लोगों को वर्मी कम्पोस्टिंग के लिये तैयार किया गया। अब तक 111 से ज्यादा वर्मी कम्पोस्ट पिटों का निर्माण कराया जा चुका है। वर्मी कम्पोस्ट पिट के रख-रखाव और उसमें कम्पोस्ट तैयार करने की भी पूर्ण जानकारियां कास्तकारों को दी जाती है। वर्मी कम्पोस्ट पिटों के निर्माण से सब्जी एवं खेती के कार्यो से जुड़े लोगों की आय में भी बढ़ोतरी हुई है।